बेसबब

"बेसबब" बिना किसी सबब के, शेर-ओ-शायरी तो नहीं कहूँगा, गोया यूँ कह लीजिये कि मेरी लफ्फाजी है। इससे पहले कि आप बिना-सबब-लफ्फाजी की बिना पे मेरी गुनाहों की फेहरिस्त में उर्दू या शायरी की तौहीन करना जोड़ दें और सजा मुक़र्रर करें, मेरी गुजारिश है कि मेरी सफाई जरूर सुन लीजिये क्योंकि ऐसी गुस्ताखी तो मैं मदहोशी में भी नहीं कर सकता।

मैं कानपुर में पैदा हुआ और पला हूँ, तो लखनवी तहजीब से अनछुआ तो नहीं रहूँगा, गंगा और गोमती के पानी का कुछ तो असर होगा, अवध की नवाबी का कुछ तो रंग चढ़ेगा। जब ग़ज़लें, नज्में, कव्वालियाँ और मुशायरे फिजा में घुले हों, तो इंसान चाहे-न-चाहे गाहे-बगाहे लफ्फाजी तो करेगा ही। मैंने कभी उर्दू की तालीम नहीं ली, तो मेरा जखीरा-ऐ-अल्फाज उम्दा नहीं है, न ही मुझे उर्दू तहरीर आती है, और उर्दू जुबान की गहराई से बस कुछ हद तक ही वाकिफ हूँ। मेरी मादरी ज़बान अवधी हिन्दी है। जहाँ मैंने हिन्दी को पढ़ कर सीखा है और हिन्दी कविता का लुत्फ़ पढ़ कर उठाया है, वहीँ उर्दू को बस सुनकर सीखा और लुत्फ़ उठाया है, तो जाहिर है कि उतनी गहराई तो मुमकिन नहीं है। इसलिए मैं अपनी लफ्फाजी को शायरी कह कर असली शायरी की तौहीन करने की हिमाकत नहीं करूँगा। मैं ये भी कुबूल करता हूँ कि मेरी ग़ज़लें ग़ज़ल के कायदे कानूनों को पूरी तरह से नहीं निबाहती हैं। चूँकि ये केवल बहर का कायदा नहीं मानती, इसलिए ये बे-बहर ग़ज़ल, या ग़नुक (ग़ज़ल नुमा कविता) हैं।

इस सिलसिले की शुरुआत कहाँ हुई, मुझे याद नहीं। बस दोस्तों-यारों के बीच में, बात ही बात में कुछ लफ्फाजी कर लिया करते थे। अब ऐसा कुछ खास तो था नहीं, तो कभी लिख के रखा भी नहीं। जो मुझे अपने पहले कुछ शेर याद रह गए हैं वो ये हैं:

जुस्तजू और जिद में हम कुछ इस कदर मगरूर थे,
वो दास्तां कोई और थी, वो हौसले कुछ और थे।

और

दिल की दास्तां लफ्जों की मोहताज़ नहीं होती है,
नजरें बयां करें दिल-ऐ-हाल जब, प्यार की शुरुवात वहीं होती है।

जवानी के सुरूर में फिर जब ग़ज़ल की तरफ रुझान बढ़ा, तो कभी कभार किसी ग़ज़ल को सुनते-सुनाते, हमने भी हाथ आजमां लिये और एक-दो शेर कह डाले। पहली बार कुछ संजीदा लिखना तब हुआ जब मैंने शाहिद कबीर की “बेसबब बात” ग़ज़ल सुनी। मैंने उस ग़ज़ल का मत्ला (पहला शेर) लिया और कुछ शेर अपने जोड़ दिये। ये हरकत बेसबब ही की गयी थी, और ‘बेसबब’ ही मत्ले का पहला लफ्ज़ था, तो मुझे ‘बेसबब’ को ही अपना तख़ल्लुस बनाना वाजिब लगा।

बहुत कुछ तो नहीं लिखा है, और न ही बहुत खूब लिखा है, पर जो भी थोडा-बहुत है, आपकी खिदमत में पेश है। मेरी इल्तिजा सिर्फ इतनी है कि उर्दू शायरी के लिए मेरी मोहब्बत को मेरी नाकाबिलियत के पैमाने से मत नापिये। हिन्दी अगर मेरी माँ है, तो उर्दू मेरी मौसी, और बहुत सी बातें और शरारतें ऐसी हैं जो आप सिर्फ मौसी से ही कर सकतें हैं, माँ से नहीं :-) उम्मीद है कि मेरे इस जज्बे की कद्र होगी।

शुक्रिया
सतीश ‘बेसबब’

  1. बेसबब बात
  2. दीवाने
  3. रंज बहुत हैं रंजिशों की इबादत न करो
  4. शाम-ऐ-तन्हाई
  5. तक़दीर तेरी ख्वाबों से दुश्मनी क्या है
  6. ये खता न हो
  7. कोई न आया
  8. कोई असर न हुआ
  9. मैं तो खुली किताब हूँ
  10. सजदे में सर न झुका
  11. पूंछूं कि मेरे रक़ीब का मिज़ाज कैसा है
  12. मेरे गुनाहों का मुझसे हिसाब न मांगो
  13. अपने वजूद की पैरवी न तू कर सब से
  14. हम बिक गये
  15. हुज़ूर आज फिर मचल रहा हूँ
  16. तमन्ना हर किसी की है
  17. हमें भी ग़ज़ल आ जाए
  18. तेरी ख़ुशी में शरीक था
  19. बरसना था मगर
  20. नयी सुबह की जब कोई उम्मीद लाता है
  21. जब भी कभी फ़लक पर
  22. रौशनाई से काग़ज़ काला कर रहे हैं
  23. रू-ब-रू न हो सके तो न सही
  24. बदनाम होकर भी मियाँ