मेरी प्रिय कविताएँ

हिंदी कविता पढने में मुझे अगाध आनंद मिलता है. मेरे इस हिंदी-प्रेम का श्रोत दीनदयाल विद्यालय है जहाँ मैंने उच्च-माद्यमिक (कक्षा ६-१२) शिक्षा प्राप्त की. जीवन में न जाने कितने ही ऐसे क्षण आये जब दिनकर, महादेवी, निराला, प्रसाद, पंत, बच्चन, अज्ञेय, सुमन, और न जाने कितने अन्य कवियों की कालजयी रचनाओं ने मुझे साहस और संबल दिया है, प्रेरित और पोषित किया है, मृदुलता से सहलाया है, हंसाया और रुलाया है. मैं इन सब का ऋणी हूँ. मेरे लिए हिंदी कविता के रसास्वादन का कोई और विकल्प भी नहीं है -- कोई और विधा या भाषा मुझे उतना नहीं लुभाती है. मैं यदा-कदा लिखता भी हूँ मन-प्राण मेरी कविताओं का संकलन है.

आजीविका-अर्जन के लिए जब कानपुर छूट गया तो हिंदी पुस्तकें, पत्रिकायें इत्यादि मिलना और पढना भी कम हो गया. व्यवसाय ऐसा है कि जीवनचर्या में अंग्रेजी का व्यापक उपयोग है. जो मधुर, शुद्ध हिंदी बोलना विद्यालय में सीखा था, अब भय है कि भूलता जा रहा हूँ -- कई बार हिंदी शब्द याद ही नहीं आते. परन्तु अब इन्टरनेट पे कई जगह हैं, जैसे कविता कोश, हिंदी कुञ्ज, हिन्दी साहित्य काव्य संकलन, जहाँ हिंदी साहित्य पढ़ा जा सकता है, तो मुझे ये रसास्वादन पुनः उपलब्ध हो गया है.

इस पृष्ट पर मैं मेरे प्रिय कवियों की विभिन्न कविताओं की वो पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मुझे अत्यधिक प्रिय हैं. आशा है कि आप पढ़ कर आमोदित होंगे.

पंथ होने दो अपरिचित -- महादेवी वर्मा

महादेवी जी की एक अनुपम कविता के इन दो छंदों को मैंने बहुत बार गुनगुनाया है:

पंथ रहने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला!

अन्य होंगे चरण हारे,
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे,
दुखव्रती निर्माण उन्मद,
यह अमरता नापते पद,
बाँध देंगे अंक-संसृति
से तिमिर में स्वर्ण वेला!

दूसरी होगी कहानी,
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी,
आज जिस पर प्रलय विस्मित,
मैं लगाती चल रही नित,
मोतियों की हाट औ'
चिनगारियों का एक मेला!

रश्मिरथी -- रामधारी सिंह "दिनकर"

दिनकर की रश्मिरथी मैंने कक्षा ११-१२ में पहली बार पढ़ी थी. तब से अब तक न जाने कितनी बार पढ़ चुका हूँ. जब कृष्ण दुर्योधन की सभा में पांच गाँव देने के प्रस्ताव के भी अस्वीकार हो जाने पर लौटते हैं, और कर्ण को ज्येष्ठ पांडव बता कर उसे पांडवों की ओर मिलाने का प्रयत्न करते हैं, तो कर्ण का पूरा ही आख्यान मुझे प्रिय है, खास कर ये पंक्तियाँ:

प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है।
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में।

होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज हरण।
नर विभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है।

चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
नर भले बने सुमधुर कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
विघ्नों को नही हिला सकता।

उड़ते जो झंझावतों में,
पीते जो वारि प्रपातो में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं।

तीर पर कैसे रुकूँ मैं -- हरिवंशराय बच्चन

लोग ज्यादातर बच्चन जी की मधुशाला ही याद करते हैं, लेकिन मुझे मधुशाला उतनी पसंद नहीं है जितनी की "बीन आ छेडूँ तुझे मन मे उदासी छा रही है" और "तीर पे कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों से निमंत्रण" :

तीर पर कैसे रुकूँ मैं आज लहरों में निमंत्रण।

आज सपनों को मैं सच बनाना चाहता हूं,
दूर किसी कल्पना के पास जाना चाहता हूं।

रात का अंतिम प्रहर है, झिलमिलाते हैं सितारे,
वक्ष पर युग बाहु बांधे, मैं खड़ा सागर किनारे,
वेग से बहता प्रभंजन केश पट मेरा उड़ाता,
शून्य में भरता उदघि-उर की रहस्यमयी पुकारें;
इन पुकारों की प्रतिध्वनि हो रही मेरे ह्रदय में,
है प्रतिच्छायित जहां पर सिंधु का हिल्लोल-कंपन।
तीर पर कैसे रुकूं मैं आज लहरों में निमंत्रण।

मैंने आहुति बन कर देखा --- हीरानंद सच्चितानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"

अज्ञेय तो अज्ञेय ही हैं, उनकी यह कविता भी कक्षा १२ की पाठ्य पुस्तक में पढ़ी थी, और उनके कांटे के कठोर होनी की मर्यादा और मर्त्य जगत की श्रद्धा में धुंधली सी याद बनाने के तिरस्कार की बात मन में घर कर गयी:

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने?

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने?
या पात्र जगत की श्रद्धा में मेरी धुंधली सी याद बने?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने --
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने!

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है --
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है --
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है।

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया --
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है!
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ।

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने,
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने!
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने --
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने।

वर दे! वीणावादिनी वर दे! -- सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

निराला जी वसंत वर्णन "दूत अलि ऋतुपति के आए" में शुद्ध हिन्दी के अनोखे आकर्षण से परिचित कराते हैं। और उनकी यह माँ शारदे की वंदना अद्भुत है:

वर दे, वीणावादिनि वर दे!
प्रिय स्वतंत्र-रव, अमृत-मंत्र नव,
भारत में भर दे!

काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर,
कलुष-भेद तम-हर प्रकाश-भर,
जगमग जग कर दे!

नव गति, नव लय, ताल-छंद नव,
नवल कंठ, नव जलद मन्द्र रव,
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे!

वर दे, वीणावादिनि वर दे।

उर्वशी -- रामधारी सिंह "दिनकर"

उर्वशी में पुरुरवा की दैविक शान्ति की आकाँक्षा और अनवरत प्रयत्नशील मानव के अंतहीन उद्यम के बीच द्वंद्व मुझे भी अनुभव होता है:

चाहिए देवत्व,
पर, इस आग को धर दूँ कहाँ पर?
कामनाओं को विसर्जित व्योम में कर दूँ कहाँ पर?
वह्नि का बेचैन यह रसकोष, बोलो कौन लेगा?
आग के बदले मुझे संतोष ,बोलो कौन देगा?
फिर दिशाए मौन, फिर उत्तर नहीं है।

पुजारी, दीप कहीं सोता है -- महादेवी वर्मा

जब भी मैं किसी मन्दिर में नतमस्तक होता हूँ तो महादेवी जी की "पुजारी, दीप कहीं सोता है !" कविता याद आ जाती और ईश्वर से कुछ भी मांग पाना मुश्किल हो जाता है:

जो दृग दानों के आभारी,
उर अरमानों के व्यापारी,
कांप रहीं जिनके अधरों पर
अनमांगी भिक्षायें सारी।
वे थकते, यह हर साँस सौंप देने को रोता है।
पुजारी, दीप कहीं सोता है!

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक -- शिवमंगल सिंह "सुमन"

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।

आह! वेदना मिली विदाई -- जयशंकर प्रसाद

आह! वेदना मिली विदाई।

छलछल थे संध्या के श्रमकण
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई।

चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी-होड़ लगाई।

मैं नीर भरी दुख की बदली -- महादेवी वर्मा

मैं नीर भरी दुख की बदली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!

असमंजस -- शिवमंगल सिंह "सुमन"

इस ओर अतृप्ति कनखियों से
सालस है मुझे निहार रही
उस ओर साधना पथ पर
मानवता मुझे पुकार रही

तुमको पाने की आकांक्षा
उनसे मिल मिटने में सुख है
किसको खोजूँ, किसको पाऊँ
असमंजस है, दुस्सह दुख है

जीवन का अस्तित्व -- मैथिलीशरण गुप्त

जिस जीवन के रक्षणार्थ है
तूने यह सब ढंग रचा,
होकर यों अवसन्न और जड़
वह पहले ही कहाँ बचा?
जीवन का अस्तित्व अशान्ति,
शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति!

और भी कितनी ही सारी कविताएँ हैं जो मुझे विभिन्न परिस्तिथियों मी याद आती रहती है...