बृहन्नला

आमुख

महाभारत कथा या उसके किसी भी अंश को किसी परिचय या भूमिका की आवश्यकता नहीं है। इसलिए यहाँ मेरा उद्देश्य केवल भारतीय लेखन परंपरा के ‘अनुबन्ध चतुष्ट्य’ का धर्म निभाना, इस कृति की प्रेरणा बतलाना, एवं इस कार्य में मिले सहयोग का आभार व्यक्त करना है।

अनुबन्ध चतुष्ट्य में चार बंधन होते हैं :- विषय (कृति किस विषय पर है), प्रयोजन (इसे क्यों लिखा है), अधिकारी (इसको पढ़ने का उपयुक्त पाठक कौन है), और सम्बन्ध (इसे पढ़ने से पाठक को क्या मिलेगा, या उसमें क्या परिवर्तन आएगा)।

विषय

नामानुरूप यह अर्जुन और अन्य पांडवों के अज्ञातवास की कथा है, अर्थात महाभारत का विराट पर्व। इसका आरम्भ पांडवों के वनवास के बाद विराट नगर प्रस्थान से होता है, और समापन उत्तरा एवं अभिमन्यु के विवाहोत्सव पर।

प्रयोजन

महाभारत की कथा कई बार कितने ही महान कवियों और लेखकों के द्वारा अप्रतिम रूप में कही जा चुकी है। यहाँ तक कि उस पर फ़िल्में और प्रसिद्ध धरावाहिक बनाये जा चुके हैं। तो फिर यह एक और प्रयास क्यों? सत्य तो यह है कि महाभारत की कथा इतनी भव्य है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसको लिखने या किसी अन्य माध्यम से प्रस्तुत करने का आकर्षण बना ही रहेगा। यह कथा एक साथ इतनी बृहत और सूक्ष्म है कि कोई भी यह केवल कहानी सुनाने के लिए नहीं लिखता, क्योंकि कथा तो सबको पता ही है। लेखक इसके माध्यम से अपनी बात कहता है, अन्वेषण करके अपनी सोच प्रस्तुत करता है। मैं भी यही प्रयत्न कर रहा हूँ।

मैं यहाँ स्वीकार करना चाहता हूँ कि मैंने इसकी कल्पना प्रबंन्ध काव्य के रुप में कदापि नहीं की थी। आरम्भ में यह ‘विराट युद्ध’ नामक एक कविता थी, जिसके दो भाग थे :- कुंठा और क्रोध। पहले भाग में अर्जुन की महावीर और श्रेष्ठ धनुर्धर होते हुए भी निर्वीर्य नपुंसक के छद्म रूप में छिपे रहने की कुंठा थी, जिसकी परिणति दूसरे भाग में विराट युद्ध में उसके विस्फोटक क्रोध में होती है, और वह अकेला ही सभी कौरव योद्धाओं पर भारी पड़ता है, उन्हें निस्तेज कर परास्त कर देता है।

जब मैंने उस कविता के कुछ अंश अपने मित्रों को सुनाए, तो उनके प्रश्नों से मुझे यह आभास हुआ कि कविता बहुत सघन थी, और विषय-वस्तु, घटनाओं, एवं पात्रों की जानकारी पाठकों को होना प्रत्याशित था। उसके बिना उस कविता को समझा नहीं जा सकता था, उसका आनंद नहीं लिया जा सकता था। उस कविता की प्रेरणा मेरी स्वयं की कुछ कुंठाएँ और उनसे लड़ने की चेष्टा थी। मैंने वह कविता अप्रयास, किन्तु बड़े मन से लिखी थी। स्वाभाविक है कि ठीक से कह न पाने की असफलता पर मुझे गहरी निराशा और दुःख हुआ। सुधारने का प्रयास भी किया, लेकिन बात बनी नहीं।

भगवानम् यत् करोति शोभनम् एव करोति। जो भी होता है, भले के लिए ही होता है। इतना स्पष्ट था कि यदि पाठक अज्ञातवास के विवरण से अनभिज्ञ है, तो प्रश्न होंगे ही। अतएव अज्ञातवास का अंत लिखने के लिए अज्ञातवास की कथा भी लिखनी पड़ेगी। यह मुझे न केवल अपनी क्षमताओं से परे लगा, बल्कि सिर्फ अपरिहार्य आवश्यकता के कारण, बिना किसी प्रेरणा के लिखना उपयुक्त भी नहीं लगा। लेकिन इसी बहाने मैंने मूल महाभारत और उसके हिंदी एवं अंग्रेजी अनुवाद में विराट पर्व को पढ़ना शुरू किया। उसको पढ़ने और थोड़ा सोचने-विचारने पर अपनी कुंठा के मूल कारण, अपनी प्रकृति और परिस्थिति के विभिन्न आयाम समझ में आए। यह पढ़ना-गुनना स्वयं का अन्वेषण, स्वयं को खोजने की यात्रा साबित हुई।आखिरकार महाभारत यों ही महान नहीं कहलाती; हम अपने जीवन में महाभारत की छाया देख सकते हैं, और उसके माध्यम से जीवन को थोड़ा समझ भी सकते हैं। जरुरी नहीं है कि हममें केवल एक ही पात्र हो, यह ज्यादा संभव है कि हममें कई चरित्रों के अंशों का घालमेल हो। मुझे अपनी इस यात्रा और विराट पर्व में कुछ सूक्ष्म साम्य भी लगा, इससे एक प्रबल प्रेरणा अंकुरित हुई जिसका फल आपके समक्ष है।

वह साम्य इस काव्य के सर्गों के प्रबंधन में निहित है। इसमें आठ सर्ग हैं :- लोप, छद्म, कष्ट, शंक, कुंठ, रोष, बोध, घोष। लोप सर्ग में पांडव लुप्त हो जाते हैं (अपने जीवन के एक पड़ाव पर मुझे लगा कि कुछ तो गड़बड़ है, जैसे कि असली मौलिक मैं कहीं खो गया हूँ)। छद्म सर्ग में पड़ाव छद्म रूप में विराट नगर में विभिन्न आजीविकाएँ लेते हैं (कुछ खो जाने पर भी मैं सबकुछ सामान्य होने का छद्म बनाये रखता हूँ)। कष्ट सर्ग में पाडंवों के विराट प्रवास के दुःख हैं, खासकर द्रौपदी कीचक से त्रस्त है (कुछ खोकर छद्म जीवन जीने पर कष्ट तो होगा ही, और कुछ खास दुःख भी होंगे)। शंक सर्ग में दुर्योधन शंकित है कि कीचक को मारने वाले पांडव हैं (अदंर जो कुछ भी टूटा है उससे स्वयं के असली चरित्र, अस्तित्व पर मुझे शंका है)। कुंठ सर्ग में विभिन्न पात्रों की कुंठाएँ हैं (कुछ अनजाना खोने-टूटने से, अपनी क्षमताओं, संभावनाओं की अपरिपूर्णता से मैं कुंठित हूँ)। रोष सर्ग में अर्जुन के क्रोध का कहर कौरवों पर टूटता है (कुंठा में मेरा क्रोध जीवन में हर ओर फूटता है)। बोध सर्ग में विराट नरेश को पांडवों के सत्य का, और पांडवों को अपनी इस कष्टमय यात्रा की कसौटी पर कसे जाने की आवश्यकता का, अनिवार्यता का भान होता है (मैं भी स्वयं को अपेक्षाकृत प्रगाढ़ता से समझता हूँ)। घोष सर्ग में पांडव स्वयं को उद्भासित करते हैं और वनवास एवं अज्ञातवास के पूर्ण होने की घोषणा करते हैं (मैं भी भविष्य के लिए तत्पर होता हूँ)।

सारांश में इसे लिखने का प्रयोजन विशुद्ध स्वार्थ है, यह कृति स्वांत: सुखाय है। यह स्वयं के अन्वेषण से उपजी अनुभूति है, और उसके सार को पांडवों की अज्ञातवास कथा के माध्यम से विभिन्न पात्रों में अंशों में समाहित-कर कहने का प्रयास है। यद्यपि यह स्वार्थपरक अभिव्यक्ति है, परन्तु मैं मूल महाभारत कथा में घटनाओं और पात्रों के चित्रण से निष्ठावान रहा हूँ; मैंने किसी चरित्र को बढ़ाया-घटाया नहीं है।

अधिकारी

TBD

सम्बन्ध

TBD

अनुक्रम

  1. लोप सर्ग - भाग १ - वंदना
  2. कुंठ सर्ग - भाग १ - यामिनी मुझको सुला दे
  3. कुंठ सर्ग - भाग २ - रात बीती, पर न बीती
  4. कुंठ सर्ग - भाग ३ - यदि समय अनुकूल होता
  5. कुंठ सर्ग - भाग ४ - सत्य? रण है द्वार आया?
  6. कुंठ सर्ग - भाग ५ - शुभ बड़ी अनुकूल वेला