अग्निपरीक्षा बाकी है

यह जीवन की साँझ नहीं है, धूप का ढ़लना बाकी है।
नहीं परीक्षा पूरी तेरी, और परखना बाकी है।

दूर बहुत चलकर आया है तब पायी है छाँव तनिक,
भरा हुआ मन, थका हुआ तन, शक्ति नहीं है शेष अधिक।
ज़रा ठहर कर सुस्ताने की स्वाभाविक है चाह मगर
पग-छालों को सहलाने की तू इच्छा मत पाल पथिक।
राह देखते रोड़े कितने, छाले छिलना बाकी है।
यह जीवन की साँझ नहीं है, धूप का ढ़लना बाकी है॥१॥

चिंगारी से जले अंग पर नेह लगा कर बैठे हो,
दहक चुके हैं अंगारे यह भ्रांति सजा कर बैठे हो।
शमित कर दिया है लपटों को ऐसा सोच रहे हो तुम,
पर झुलसे ठूँठों में शायद चिता बना कर बैठे हो।
दावानल की अग्निपरीक्षा अभी धधकना बाकी है।
यह जीवन की साँझ नहीं है, धूप का ढ़लना बाकी है॥२॥

बरस रहे थे मेघा मन में, बाँध झील का टूट गया,
उमड़-घुमड़ कर, रुक-रुक बह कर, स्रोत प्रलय का सूख गया।
पर जीवन जब तक है तब तक भावुक मन का त्राण नहीं,
क्यों सोचा अपने हिस्से का सकल क्लेश अब छूट गया?
जमे हुए हिम-खंड हृदय में, उनका गलना बाकी है।
यह जीवन की साँझ नहीं है, धूप का ढ़लना बाकी है॥३॥

मधुकर मधु स्वप्नों में डूबा, सजी हुई है मधुशाला,
चषक छलकता है नयनों का, बहती है जीवन-हाला।
पर तिलिस्म हो कहीं अगर यह, रेत-महल सा टूट गिरे,
लुट जाए जीवन का हर सुख, रीता निकले मन-प्याला?
सब खो जाने पर भी रहता भावी अपना बाकी है।
यह जीवन की साँझ नहीं है, धूप का ढ़लना बाकी है॥४॥

७ नवम्बर २०१६
बंगलौर