दीपक की लौ का स्पंदन!

दीपक की लौ का स्पंदन!

देख रहा हूँ बैठा एकटक
जलते दीपों की ऋजु रेखा।
हिलती-डुलती दीप शिखाएँ,
ज्योति सलोनी, रूप अनोखा।

मंद हवा के झोंकों से वे
खो-खो मानो खेल रही हैं।
लपको-झपको, छू लो के स्वर
नीरवता में घोल रही हैं।

रंग भूमि में जय पाने को
होड़ लगता हो ज्यों जीवन! ॥१॥

आज रात है सज कर आयी
टिम-टिम करते तारों से भर।
आँचल लहरा कर कहती है
मेरे गहने कितने सुन्दर।

यह सुन सब दीपों की लौ में
खिल-खिल करती खुसुर-फुसुर है।
बोलीं हम हैं पिया-जिया में,
पर तेरा प्रिय आज किधर है?

रात अमावस की क्या कहती,
चाँद बिना सूना उसका मन! ॥२॥

करती थीं लौ हँसी-ठिठोली,
बींध गया पर निशा-हृदय था।
बात कही जो सच थी लेकिन
चोट लगना नहीं लक्ष्य था।

बाँहों में ले प्यार से बोलीं
समझ संगिनी विरह-अगन में।
पूर्णमास भी होगा सखि रे,
पाओगी राकेश गगन में।

तुहिन कणों में निशा पिघलती,
ऊष्म भरा लौ का संवेदन! ॥३॥

याद कर रहा कवि यह लिखकर,
बरसों पहले की दीवाली
यही दीप थे तब भी जलते
यही हवा तब भी मतवाली।

भिन्न-भिन्न पर देखो कितना
कविता का बहता निर्झर है।
हुँकार रही थी तब नियति पर,
आज ये कितना कोमल स्वर है।

दीपक की लौ सा ही ठुमके,
भाव भरा जीवन का नर्तन! ॥४॥

३० अक्टूबर २०१६
(दीपावली २०१६)
बंगलौर