प्रांजल

[कुछ महीनों पहले विभ्रांति कविता लिखी थी, यूँ समझ लीजिए कि यह परिवर्तन, प्रगति, या प्रतिउत्तर है.]

वेदना के स्रोत विस्मृत, लुप्त हो रहें हैं क्षितिज में,
धुंध में है राह, पर अब आस जगती है हृदय में।
लालसाइच्छा, desire में मदमत्तमद में मत्त, नशे में धुत्त, उन्मत्त, मतवाला, intoxicated हो दौड़ते थे जो अनवरतबिना रुके, ceaselessly,
पदपैर, feet वही निर्लिप्तबिना लिप्त हुए, detached हो प्रस्तुत हुए जीवन समरयुद्ध, battle में।

विगत में जिसने सदा ही शत्रु माना था नियति को,
विजय पाकर दम्भ से दुदुंभी सुनाते थे गगन को;
और यदि मिलती पराजय, रगड़ते हथेली विवश हो,
करहाथ वही उद्यत हुए हैं प्रेरणामय चिर सृजन को।

जानता जीवन डगर पर मन कभी है ठेस खाता,
भूलता कुछ, और कुछ को न कभी भी भूल पाता।
कसक की निधियाँ पुरातन जतन से जिसने संजोईं,
मन वही मधु स्रोत बन कर नेह घट जग पर लुटाता।

सत्य तो ये कि स्वयं से ही सदा था द्वंद्वदो के बीच संघर्ष, duel मेरा,
मन, मति और आत्म को संघर्ष ने चहुँ ओर घेरा।
अब स्वत्व हो रहा है स्वाहा यज्ञ में आहुति बनकर,
विदा दे विभ्रांतिभ्रम, भ्रांति, confusion को अब प्रांजलसरल, स्पष्ट, निर्मल, साफ, स्वच्छ, clear है नित सवेरा।

१४ जनवरी २०१६
बंगलौर