जीवन का फिर द्यूत सजाया

तन्मय हो, निश्चिन्त हृदय,
क्षण-भंगुर चौसर खेल रहा।
कुछ लूट लिया, कुछ हार गया,
चोटिल हो, पीड़ा झेल रहा।
फिर
संकल्पों की अंजुलि भरकर,
कौशल की कुछ मणियाँ चुनकर,
कर्मों के पासे फिर फेंके,
खुद पर फिर से दांव लगाया!
जीवन का फिर द्यूत सजाया! ॥१॥

झंझावातों से लड़ने की
चाह संजोये विहंग उड़ा।
उड़ने का निश्चय न टूटा,
भले गिरा पड़ा हो पंख तुड़ा।
फिर
आशा के उन्मुक्त गगन में,
स्वप्नों के अनजान भुवन में,
पंखों का साहस फिर तोला,
फिर क्षितिज से होड़ लगाया।
जीवन का फिर द्यूत सजाया! ॥२॥

कुपित शीत की हिम वर्षा में
कुछ हरी टहनियाँ टूट गयीं,
कई पत्तों के आश्रय छूटे,
कुछ जड़ को धरती छोड़ गयी।
फिर
मधुबन की गरिमा सहेज कर,
श्वासों में अनुभव का तेज भर,
तरुवर की ठिठुरी काया पर
फिर बसंत का यौवन छाया।
जीवन का फिर द्यूत सजाया! ॥३॥

अपना मूल्यांकन करने को
जाने क्यों मन आज करा।
खुद तुला की डंडी बन कर,
पलड़ों में खुद को काट धरा।
फिर
लहू सने निज के टुकड़ों को,
अश्रु अभिसिंचित दुखड़ों को,
अंतिम बार आलिंगन में भर,
गंगा में तर्पित कर आया।
जीवन का फिर द्यूत सजाया! ॥४॥

२६ नवंबर २०१४
बंगलौर