ऐसे ही जीवन चलता है

कभी भोर की कुंकुम का क्षण
कभी साँझ सा ढलता है प्रण
किसकी हर स्वेद कणिका से सिकता में अंकुर उगता है ?
ऐसे ही जीवन चलता है!

कभी यज्ञ में निखरा अर्पण
कभी धूम हो भस्म समर्पण
किसकी आहुति पर केवल दीप्त पुण्य सदा फलता है?
ऐसे ही जीवन चलता है!

कभी प्रेम की सुधा बरसती
कभी नेह की क्षुधा तरसती
किसके जीवन निर्झर में, स्नेह सलिल अविरल बहता है?
ऐसे ही जीवन चलता है!

कभी कर्म-फूलों से सज्जित
कभी त्रुटि-शूलों पे लज्जित
किसके उद्यम कानन में, मौसम सतत मृदुल रहता है?
ऐसे ही जीवन चलता है!

कभी उर्मि रश्मि सा पुलकित
कभी उदधि उर सा उद्वेलित
किसका भावपूर्ण अंतस, निस्तब्ध अविचल बंधता है?
ऐसे ही जीवन चलता है!

कभी दुर्गम ऊर्ध अवरोहण
कभी नैराश्य दारुण विगलन
नियति की कौतुक छलना का, कौन मंतव्य समझता है?
ऐसे ही जीवन चलता है!

१५ सितंबर २०१४
बंगलौर

[यह प्रस्तुति संतोष मिश्र जी की एक कविता के शीर्षक से प्रेरित है। ]