कल्पनाओं के लोक में

जब मैं आँख बंद कर के,
पलकों के आधार - पृष्ट पर,
कल्पना की तूलिका में,
यादों के रंग लगा कर,
तुम्हारा चेहरा बनाता हूँ,
तो तुम्हारा चेहरा
तुमसे हुयी मुलाकात की यादों से
मानस पर अंकित चित्र से भिन्न,
कुछ नवीन, कुछ और आभामयी होता है।

ऐसा क्यों होता है?

शायद इसलिये,
क्योंकि तुम अब और भी निखर गयी होगी।
और मेरा मन जो सतरंगी सपने देखता है,
तुम्हारे सामीप्य का अहसास कर,
तुम्हें मेरी कल्पना में उतार रहा होता है!

३ मई १९९०
नवाबगंज, कानपुर

[ कवि की किशोर कल्पना का यही एकमात्र अवशेष है ;-) ]