देहरी

यादों का आकर्षण, पर क्या सिमट इसी में रह जाऊँ?
छत, दरवाजा, गली, मोहल्ला, इनसे न बाहर आऊँ?
पगडण्डी पर निकलूँ लेकिन रुकूँ गाँव के बरगद पर,
संतोष करूँ बस इतने में, इस सीमा में बँध जाऊँ?

माना इस मिट्टी की खुशबू बसती मेरी साँसों में,
बरगद की खोहों में कितने राज छिपाये यारों ने,
तो क्या यह कारागृह है जो सिमट रहूँ इसके भीतर,
जैसे पायल की छमछम पनघट तक जाती घूँघट में?

आसमान में उड़ना है, मत रोको मेरे पंखों को,
जो पाया है इन सब से वह देना है दुनिया भर को,
घर-आँगन-दरवाजे का अधिकार रहेगा अंतस पर,
पर यह परिधि नहीं, देहरी है, कहती आगे बढ़ने को!

६ जुलाई २०१७
बंगलौर