क्या भूलूँ क्या याद करूँ - हरिवंशराय बच्चन

"बच्चन" की कई कवितायें मुझे बहुत प्रिय हैं खासकर "मधुकलश" और "सतरंगिनी" की। पहली बार उन्हें कब पढ़ा याद नहीं, पर उनकी पहली स्मृति उस समय बनीं जब IIT में मेरा roommate अश्विनी कुमार शायद उनकी आत्मकथा या किसी अन्य संकलित रचनावली का, अब ठीक से याद नहीं, कोई खंड पुस्तकालय से ले कर आया था। मैंने बीच-बीच से कुछ पन्ने उलट-पुलट कर पढ़ा था, और उनकी एक कविता मेरे मन में बस गयी थी: बीन आ छेडूँ तुझे मन में उदासी छा रही है। IIT के पुस्तकालय में हिंदी साहित्य के तकरीबन छै racks थे जो मेरी मन-शांति में बड़े सहायक थे। पर उस समय उस बच्चन की आत्मकथा को मैंने नहीं पढ़ा, और ये अच्छा ही किया क्योंकि तब मुझमें इसे समझने की परिपक्वता नहीं थी। तकरीबन एक वर्ष पहले मैंने बच्चन जी की आत्मकथा के चारो खंड अपने हिंदी प्रेमी सहकर्मी राजीव पालंकी से मंगाए थे, और मुझे सदैव याद रहेगा कि उसने इसके पैसे भी नहीं लिये थे। अब कहीं जाकर पढ़ने का योग बना है। कालिंदी खाल यात्रा के बाद से, मन पिछले तीन वर्षों में जिस उमड़-घुमड़ से गुजर कर अब कुछ शांत हुआ है, मैं कहूँगा कि नियति ने मुझे ये पढ़ाने का बड़ा ही सटीक समय चुना है।

तो इस हफ्ते का हर खाली क्षण मैंने बच्चन की आत्मकथा का प्रथम खंड - क्या भूलूँ क्या याद करूँ - पढ़ने में बिताया है। मुझे कविता और कवि की कथा पढ़ने में बहुत समय लगता है क्योंकि कभी कविता की छाया अपने जीवन में देखता हूँ या कभी अपने जीवन को कविता के चश्में से। मेरे हिसाब से कविता जीवन को समझने-संवारने का अनोखा साधन है। बच्चन ने लिखा है कि उनकी कविता में वही है जो उन्होंने जिया और भोगा है। सो जब आत्मकथा पढता हूँ कि उन्होंने जीवन की किन परिस्थितियों और मन:स्थिति में कोई कविता लिखी थी, और उनके कविता में प्रयुक्त संकेतों के मतलब बतलाने पर उनकी पहले की पढ़ी कविताओं के अर्थ एक और भी अधिक मार्मिक धरातल पर समझ में आतें है। अगर आपने बच्चन की कविताओं को सराहा है तो मैं कहूँगा कि आप उनकी आत्मकथा जरूर पढिये।

यह पोस्ट पुस्तक की समीक्षा नहीं है। जो कुछ बातें दिखीं या मन में जो भाव उठे या स्मृति ताज़ा हुई, बस वह भर ही है।

पहली बात तो ये दिखी कि बच्चन ने अपने सात पीढ़ी के पुरखों का जैसा इतिहास संजोया है वो मेरे लिये आश्चर्यजनक है। राजा-महराजाओं के अलावा अपनी इतनी पीढ़ियों का इतना विस्तृत वट-वृक्ष लिपिबद्ध करने वाले शायद वो अकेले ही हों। मैं तो अपने पुरखों के वृक्ष की तीन पीढ़ियों की भी हर पत्ती को जानने का दंभ नहीं भर सकता।

प्रथम खंड का पहला हिस्सा मुझे अपने बचपन के परिवेश की कई यादें दिला गया। मैं भी गाँव-शहर के मिश्रित परिवेश में पला हूँ। उनकी कई उक्तियाँ-मुहावरे या बात कहने का ढंग, गाँव-शहरी में फर्क, मुहल्लों का सामाजिक व्यवहार, कई तीज-त्यौहार (जैसे आँवले के बाग में पूजा, विभिन्न व्रत और मन्नतें, मुहर्रम में ताजिये में हिंदुओं की भी कवादतें) ये सब कुछ मुझे बचपन की गलियों में घुमा गया और कई किस्सों की याद दिला गया। बचपन के सारे अभिन्न मित्र याद आये: शरद सिन्हा, राजीव राणा, धावक "पंडित" आशीष तिवारी, आशीष श्रीवास्तव, अंशुमान शुक्ल, नीरज भारती, मनीष निगम, और साथ ही कई और सहपाठी।

उनके इलाहाबाद के चौक के पेड़ पर १८५७ की ग़दर के समय कई लोगों के फाँसी देने के विवरण से मुझे कानपुर में अपने घर के पास के चंद्र शेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय, जिसे वहाँ पत्थर कालेज के नाम से जाना जाता है, की याद आ गयी। कहा जाता है कि वहाँ भी कई पेड़ों पर ग़दर के समय कितने ही लोगों को लटका के फाँसी दी गयी थी, और मेरे समय भी रात को कई लोग उस रास्ते से जाने में डरते थे। मैं उससे होकर कई बार देर शाम अँधेरे में मैं आशीष श्रीवास्तव के रावतपुर के घर से लौटता था, पर मुझे कभी डर नहीं लगा, और मेरे सच्चे मित्र कहेंगे कि "भाई, भूत भी तुमसे डरते हैं"। उन्होंने जो जनमानस में इतिहास के जीवित रहने की बात कही कि उक्तियाँ और धारणाएँ समाज के सामूहिक अनुभवों के कोष से जन्मती हैं, मुझे अपने गाँव-शहर में सुनी और याद रह गयी दो उक्तियों की याद करा गया। पहली, कानपुर में ग़दर के बाद जब अंग्रेज पल्टन कलकत्ता या इलाहाबाद से आई और कानपुर से होकर लखनऊ गयी तो कई "गांवन मा एकौ मरद न बचा, सारन का लाइन मा खड़ा कर कै गोली मार दिहिन।" और दूसरी कि "औरंगजेब के समय मा इतने बामन काटे गये कि जनेऊ का मनो सूत इकठ्ठा हुई गवा।" कदाचित इन दोनों ही बातों में अतिशयोक्ति है, पर सत्य भी जरूर होगा।

बच्चन के घर में क्रांतिकारियों का फरारी में छद्म नामों में प्रवास करना भी काफी रोचक था। खासकर प्रकाशो और श्रीकृष्ण से सम्बंधित प्रकरण और एक दुखद विघटन में उसका अंत। इस प्रकरण पर उनका लेखन उनकी भावुकता और निर्मम निर्भीक सत्यवादिता दोनों दिखाते हैं। क्रांतिकारियों का उल्लेख से मुझे अपने दादा जी के सबसे छोटे भाई की स्मृति हो आई; सुना था कि वे भी कई बार गंगा किनारे नारायण घाट और मौनी घाट के जंगलों में छिपे क्रांतिकारियों को खाना आदि पहुचने गये थे।

बच्चन जी कुछ पीढ़ी पहले के पुरखे काफी संपन्न थे, किंतु बच्चन तक आते-आते सम्पदा न बची और उनका जीवन कभी कष्ट में बीता। यहाँ तक की उनकी पहली पत्नी जब भी ज्यादा बीमार पड़ती तो उनके पिता मायके बुला लेते ताकि इलाज के खर्च का बोझ बच्चन पर न पड़े। अपने पढ़ाई के खर्च चलाने के लिये उनको सुबह-शाम ट्यूशन पढ़ना पड़ता। उनका आरंभिक जीवन कभी संघर्षमय था। महादेवी जी ने कहीं लिखा है "वही सुमन सुरभित हो खिलता जो काँटों के बीच पले"।

किंतु सबसे द्रवित करने वाला प्रसंग इस खंड के अंत में उनकी पत्नी श्यामा की लंबी बीमारी के बाद निधन का था। एक ओर जहाँ यह भारत में नारी के निजी वजूद को, स्वत्व को, अपने संसार में विलीन कर देने का एक और मार्मिक उदाहरण था (जिसका मैं आलोचक हूँ), वहीं दूसरी ओर बच्चन में श्यामा के प्रति प्रेम और उनके जीवन पर श्यामा की अमिट छाप भी स्पष्ठ है। बच्चन लिखते हैं कि श्यामा के साथ वह भी कुछ मर गये और उनमें श्यामा भी कुछ जीती रहीं। यह हमारे आत्मीय जन का काल में तिरोहित होने का सत्य है कि हमारे अन्दर भी कुछ मर जाता है और हमारी स्मृतियों में भी प्रिय जीवित रहता है।

यह खंड उनके १९०७ में जन्म से लेकर १९३६ में उनकी पत्नी की मृत्यु तक की कथा है। उस समय छोटी उम्र में विवाह की पृथा थी। लेकिन फिर भी बस २९ वर्षों में जीवन के इतने उतार-चढाव देखना... अब तो विवाह ही २९ वर्ष की अवस्था में होता है। बच्चन उस उम्र में धन की दृष्टि से भले ही गरीब रहे हों पर भावनाओं के अनुभव में अत्यंत समृद्ध थे।

इस खंड को पढ़ने के बाद "मधुकलश" को फिर उठा कर उसके पन्ने पलटना स्वाभाविक था जिसकी कवितायेँ बच्चन जी ने १९३५-३६ में लिखी थी, जिन समय का वर्णन उन्होंने इस खंड के अंतिम भाग में किया है। मेरी प्रिय कवितायें मांझी और लहरों का निमंत्रण जीवन के कुछ और नये रंग दिखलाती प्रतीत हुईं।