लोक-अवज्ञा

गम के घूंट भरे कितने जीवन के पैमाने से,
तब तो एक बार न आई कोई आह जमाने से।
हलाहल की नदी में जब डुबकी ली दीवाने ने,
तब तो एक बार न पूछा उसका हाल जमाने ने।

अब साकी तेरी बाहों में बंध थामा है प्याले को,
मस्तानी आँखों की मदिरा भायी है मतवाले को।
दुनिया के दस्तूरों का कबाब भून कर खाता हूँ,
मधुमय ओठों के रस से छक कर प्यास बुझाता हूँ।

चार लोग कहेंगे क्या, क्यों इसकी मैं परवाह करूँ?
मन है, मय है, मधुर प्रणय है, अब क्यों मैं आह भरूँ?
जीवन के हर सुख को आकंठ डूब कर भोगूंगा,
आनंद-तरु की फुनगी तक चढ़ने से न चूंकूंगा।

२२ फरवरी २०१५
बंगलौर

[ इसकी प्रेरणा अजय लाल थे, लेकिन अब सन्दर्भ और प्रसंग भूल गया हूँ। ]