तरुवर के तीन बीज

जीवन - आयाम समझने को
मधुवन में देखूँ घूम-घाम,
षड् ऋतुओं का आना-जाना,
हों तरुवर से बातें तमाम।

वृहद तना लख तरुवर का,
सोचूँ कितने वसंत बीते।
अनुभव का सार-सत्व है क्या,
पूछूँ तो मन में क्या गुनते।

बालक के मन सा लाड़ लिये
लिपटा उनके रूखे तन से,
वल्क रेख पर उँगली फेरी,
कुछ विस्मय, कुछ कौतूहल से।

मैं बोला, हे तरुवर! तुम
कितने विटपों के स्वामी हो!
कितनी वल्लरियों का संबल,
पत्तों के धारक नामी हो।

कितने किसलय फूटे तुम पर,
कितनी ही कलियाँ खिल आईं।
कितने पथिकों ने छाया में
फल खाकर फिर ऊर्जा पाई।

कितने ही विहगों ने तुम पर
तिनकों से नीड़ बनाया है।
प्राची के संकेतों को नित
खग-कुल ने जग पहुँचाया है।

कितने बसंत खिले तुम पर,
ग्रीष्म हैं कितने कुम्हलाये,
वर्षा की झड़ी सुहानी फिर
शरद, हेमंत, शिशिर आये।

जिया है इतना जीवन तुमने,
कितने ही जीवन देखें हैं।
सिखलाओ मुझको पाठ सभी
जो कुछ भी तुमने सीखें हैं।

सुन संबोधन, असमंजस से
तरुवर ने ली अंगड़ाई।
जीवन का उद्बोधन पाने
अब यह कौन लालसा आई!

मुझसे उन्मुख होकर बोले,
विवेक नहीं है ज्ञान, कला।
बुद्धिमता का खुद अर्जन कर,
कोई न इसे सिखला सकता।

देना मेरा है कर्म सदा
तो तीन बीज हूँ ये देता।
बो-पोषित कर, या झाड़-फेंक,
इच्छा तेरी, निर्णय तेरा।

सुन गुरु वाणी तरुवर की
मन संयत औ' गंभीर बना,
मैं तत्पर सुनने - गुनने को
बैठा स्थिर, मेरुदण्ड तना।

बोले, पहला बीज है ये कि
घृणा - प्रेम विपरीत नहीं।
वे सिक्के के दो पहलू हैं,
एक - दूसरे से पृथक नहीं।

जैसे, बसंत में बहे बयार
तो तन को बहुत सुहाती है।
पर शीत-शिशिर में चले हवा
तो त्वचा छील कर जाती है।

है पवन वही, पर समझो तुम
कि ऋतु का है बस यह अंतर।
प्राण-वायु का विलोम है क्या?
हो रिक्त, रहित, या शून्य, सिफर।

वैसे ही, प्रेम-घृणा का भी
है मूल भाव आसक्ति-राग।
प्रेम का उल्टा घृणा नहीं,
है निठुर उपेक्षा, चिर विराग।

उत्कण्ठा और धुन के बिना,
प्रेम-घृणा नहीं हो सकती।
ईधन दोनों का है समान,
अंतस में तृषा ही जलती।

तजना सच में हो नेह अगर,
तो घृणा न मन में भरना तुम।
दुस्सह दुःख का उपचार सदा
विरक्त विराग से करना तुम।

अब सोच रहा होगा तू ये,
क्यों करूँ प्रतीक्षा मैं दुःख की?
औषधि से उत्तम रोकथाम,
क्यों न रोकूँ दुःख-उद्गम ही?

उचित विचार यह तेरा है,
दूसरा बीज ले देता हूँ।
दुःख का असली कारण है क्या,
अब यह मैं तुझसे कहता हूँ।

जब गर्मी से झुलसे वन में
जीवन है त्राहि-त्राहि करता।
"मेघा बरसो" मनुहार लिये
खग, पौध, मनुज नभ को तकता।

होती अपेक्षा बादल से कि
बरसेगा, जिया जुड़ायेगा।
आशा-अभिलाषा का अंकुर
खिल, जीवन नया सुहायेगा।

यदि न बरसें बदरा, या फिर
अतिवृष्टि, घटा घनघोर फटें।
जग-दुःख का कारण बादल क्या?
हैं दोषी दामिनी की लपटें?

द्युति-बादल का दोष नहीं,
दुःख-स्रोत सदा हैं इच्छायें।
तू इच्छाओं को दास बना,
न कर औरों से अपेक्षायें।

तूने दुःख का उपचार सुना,
दुःख का कारण भी जाना है।
पर "दुःख है" इसका दुःख न कर,
जीवन में दुःख तो आना है।

तीसरा बीज है यही, सुनो
कि दुःख की खोज में मत जाओ।
पर दुःख आये तो भागो मत,
आत्मीयता से गले लगाओ।

जब जग हो निर्दय शीत तुल्य,
और दुःख-संताप जलाते हैं।
तब नयना बरसा कर सावन,
मन धो पावन कर जाते हैं।

दुःख कठिन भले, पर दंड नहीं,
अभिशाप न इसको मानो तुम।
यह क्षण पुनीत मन शुद्धि का,
अवसर उन्नति का जानो तुम।

जीवन की आपा - धापी में,
जीवन जीना न विस्मृत हो!
अद्भुत सुख या दुस्सह दुःख हो,
जीवन तप-उन्मुख, विकसित हो!

बस यही तीन बीज हैं मेरे,
सत्व यही मेरे अनुभव का।
इससे ज्यादा कुछ ज्ञात नहीं,
संदेश ये जीवन-कलरव का।

१८ जनवरी २०१५
बंगलौर

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TL;DR:
1. Love/hate are two sides of same coin, fed by passion. Opposite of love is not hate, it is indifference.
2. Nobody, but your own desires and expectations from others, are source of your sorrows.
3. Don't seek pain, but embrace it when it comes. Pain purifies soul.
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