आत्मालोचन

कई प्रश्न आते हैं मन में। सबसे पहला है कि आखिर मैं लिखता क्यों हूँ? ईमानदार जवाब ये है कि जब भावनायें उमड़ती हैं तो मैं कुछ और कर ही नहीं पाता! अगर भावनायें शब्दों में ढल जायें तो मन शान्त हो जाता है। लिखना मेरा कर्म नहीं है, औषधि है।

दूसरा प्रश्न ये उठता है कि क्या मैं कवि हूँ? सोचने पर लगता है कि हूँ भी, और नहीं भी हूँ। हूँ, क्योंकि जो भी लिखता हूँ वह कविता होती है। और नहीं हूँ, क्योंकि कवि होने के लिये आवश्यक सभी क्षमतायें अभी मुझमें नहीं हैं। विचारों को सुगठित पद्य के रूप में अभिव्यक्त करने का सामर्थ्य मात्र होने से कोई कवि नहीं बन जाता; बात को कहने की क्षमता होना कवि होने के लिये आवश्यक गुण तो है, परन्तु इतना मात्र होना ही पर्याप्त नहीं है। भावना, विचार, कल्पना एवं अभिव्यक्ति की सामर्थ्य के साथ ही आवश्यक है संवेदनशील दृष्टि एवं गूढ चिंतन शक्ति।

कवि की दृष्टि ऐसी होनी चाहिये जो व्यक्तिगत सुख - दु:ख, स्वार्थ, अहंकार के खोल को चीर कर ममता - स्नेह - प्रेम की स्निग्ध ऊष्मा एवं जनसाधारण की वेदना तक पहुँच सके। कवि के लिये शिशु की किलकारी में समाहित आह्लाद, बालक की नटखट शैतानियों की मधुरता, माँ के स्नेह की स्निग्धता, प्रेम - बंधन के अर्वाचीन, अगोचर रहस्य और प्रलयंकर के रोष को आत्मसात करना आवश्यक है। कवि अगर सरस स्मित पर मुग्ध हो तो स्वप्नहीन, सूनी आँखों की भयावकता से डरे भी। भावुक ओठों की थरथराहट से सम्मोहित हो तो अत्याचार और आतंक के विरूद्ध निडर हो शंखनाद भी करे। प्रेमिका के लज्जा से रक्ताभ कपोलों को चूमें तो ओजस्वी गर्जना से जनता में जोश भी भर दे। ऐसी संवेदनशील दृष्टि वाला व्यक्ति ही कवि बन सकता है।

परन्तु मेरी कविता का विषय मुझ तक ही सीमित रहा। वह मेरी खुशी, मेरे रोदन और मेरे संघर्ष में ही सिमटी रही। मेरी कमियों पर कटाक्ष किया तो मेरी ही उपलब्धियों पर इतरायी भी। मेरी कविताओं को ध्यान से देखने पर पता लगेगा कि वे मेरे जीवन में आये उतार - चढाव की कहानी मात्र कह रहीं हैं। मैं अपनी कविता को स्वयं से अलग नहीं कर सका, "व्यक्तिगत सुख - दु:ख, स्वार्थ, अहंकार के खोल" से बाहर न आ सका। तो मेरी दृष्टि अभी उतनी संवेदनशील नहीं है।

मुझमें अभी ऐसी गूढ चिंतन शक्ति भी पर्याप्त नहीं है जो कि भावों की विवेचना कर दर्शन को जन्म दे सके। मैं अनुभवों एवं भावों को निचोड़ तो लेता हूँ लेकिन उसके रस को छान कर दर्शन अलग नहीं कर पाता, बस रस में डूब कर ही संतुष्ट हो जाता हूँ।

जब ये दोनों ही क्षमतायें नहीं हैं तो मैं अपने को कवि कैसे कह सकता हूँ? अतएव मैं अभी स्वयं को प्रत्येक दॄष्टिकोण से कवि नहीं मानता।

तीसरा और अंतिम प्रश्न है कि कविता साहित्य की अन्य विधाओं से किस तरह से अलग है? मैं कोई ज्ञानी आचार्य तो हूँ नहीं, पर मुझे लगता है कि कविता में रस का होना आवश्यक है, और रस के लिये लय का होना आवश्यक है।

मैं यह मानता हूँ कि छन्दादि के नियम व्यक्ति की सॄजनात्मकता पर अंकुश लगाते हैं, परन्तु मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह है कि कविता स्वयं ही लयबद्ध हो कर मन में आती है। सत्य है कि सबके साथ यह होना जरूरी नहीं। अछंद कविता में यदि लय हो तो वह स्वीकार्य है। "दिनकर" की "उर्वशी" हो या "निराला" की "वह तोड़ती पत्थर", छंद में बंधे बिना ही ये गीतों की भांति लयबद्ध हैं, इन्हें गाकर पढा जा सकता है। कविता में लय का आभाव होने पर वह अरूचिकर और बोझिल हो जाती है; प्रवाह न होने पर वह ठहरे हुये पानी की तरह सङी हुयी सी लगती है। तो मेरे विचार में अन्य कई बातों के अलावा, लय का होना कविता को अन्य विधाओं से अलग करता है। मैनें प्रयत्न किया है कि मेरी कवितायें कम से कम इस कसौटी पर खरी उतरें।

इस संकलन में अपवादस्वरूप कुछ रचनायें ऐसी भी हैं जो कविता की श्रेणी में नहीं आती हैं, पर पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगा कि उनके बिना कुछ अधूरापन रह जायेगा, इसलिये उन्हें भी जोड़ दिया। हर कविता के साथ उसकी उत्पत्ति का स्थान एवं दिनांक भी दिया है। मैं कृतियों को समयक्रम के अनुसार इसलिये प्रस्तुत कर रहा हूँ क्योंकि मेरे जीवन के तारतम्य को शायद किसी और क्रम में बांधा भी नहीं जा सकता।

अन्ततोगत्वा, मैं जो कुछ भी लिखता हूँ वह स्वांतसुखाय है, अगर किसी और को भी इसमें आनन्दानुभूति होती है तो मेरे लिये यह प्रभु का प्रसाद है।

इति।

सतीश चन्द्र गुप्त
५ दिसंबर २००२
Chicago, IL, USA