यूंही यूंही ...

(गोपालदास "नीरज" जी की इस सरल परन्तु अर्थपूर्ण कविता की विवेचना लिखने का मुझमे सामर्थ्य नहीं है। यह कविता स्वतः-स्पष्ट और संपूर्ण है। आशा है कि आपको भी पसंद आएगी।)

भोर हुआ,
धूप चढ़ी,
शोर हुआ,
साँझ बढ़ी,
यूंही यूंही एक दिन निकल गया।

प्राण तपे,
प्यास जगी,
मेघ घिरे,
झड़ी लगी,
यूंही यूंही हिय-हिमाद्रि गल गया।

स्नेह चुका,
सांस थकी,
तिमिर झुका,
ज्योति बिकी,
यूंही यूंही एक दीप जल गया।

रूप हंसा,
रास रचा,
मिलन सजा,
विरह बचा,
यूंही यूंही एक स्वप्न छल गया।

जन्म रोया,
मृत्यु हंसी,
आयु लुटी,
धूल बसी,
यूंही यूंही बस मनुष्य ढल गया।

-- गोपालदास "नीरज" (कारवां गीतों का)