कुंठ सर्ग - भाग ५ - शुभ बड़ी अनुकूल वेला

[बृहन्नला के निर्देशानुसार सैरंध्री मालिनी राजकुमार उत्तर को बृहन्नला को इस युद्ध में अपना सारथि बनाने का सुझाव देती है।]

“शुभ बड़ी अनुकूल वेला!”

मालिनी वापस पहुँचकर
योजना-अनुरूप बोली,
“ध्यान से हे! कुँवर सुनिए,
विस्मय भरी यह पहेली।

“आप जिसको खोजते हैं
वह यहीं सेवा-टहल में,
राजकुल की छत्रछाया,
पा शरण नाटक महल में।

“पांडवों का भृत्यसेवक था वह,
पार्थ का अनुरक्तभक्ति, प्रेम, अनुराग रखने वाला चेला। ॥१॥

“रूप दावानल बनाकर
अग्नि ने खाण्डवअग्नि देव की खाण्डव वन जलाने में सहायता हेतु अर्जुन द्वारा इंद्र को मेघ-वर्षा करने से रोकने के लिए किया गया युद्ध, जिसे करने के लिए वरुण देव ने अर्जुन को गाण्डीव धनुष, अक्षय तूणीर, चक्र तथा वानर की ध्वजा वाला रथ दिया जलाया।
युद्ध में उस, पार्थ का रथ
इस युवक ने ही चलाया।

“पा सुघड़सहज, कुशल, निपुण सहयोग इसका
विजय अर्जुन ने करीं हैं।
जानिए समतुल्यसामान तुलना का, बराबर इसके
दूसरा सारथि नहीं है।

“संग लड़ संग्राम कितने
सैन्य दल पीछे ढकेला। ॥२॥

पटुप्रवीण, कुशल नहीं सारथ्यसारथि का काम, रथ चलाना में ही,
समर का भी हौसला है।
योग्य घातक घोर रण के,
सिद्ध साथी बृहन्नला है।

“अत: उसे आदेश भेजें —
रासरस्सी, लगाम घोड़ों की सँभालो।’
पुण्य पिछला आपका यह,
फल यथोचितयथा-उचित, जैसा उचित हो वैसा, यथायोग्य, समुचित आज पा लो —

उद्यमप्रयत्न, परिश्रम, मेहनत बिना ही उपस्थित
सारथि समर्थ अलबेला।” ॥३॥

पूर्ण उत्तर की अपेक्षाउम्मीद, जरुरत, इच्छा,
उक्तिकथन, वचन उसकी मनोरंजक,
“युवक ऐसा गुण-विभूषित
है भला कैसे नपुंसक!

शीलचरित्र, सदाचार, शिष्टता हतनष्ट, खोया, मृत होगा, गुणी को
मैं अगर आदेश दूँ तो;
भंग राजपुरुष गरिमा,
क्लीवनपुंसक से अनुनयविनती, निवेदन करूँ जो;

“उचित यदि तुम कहो उससे,
बस न मेरे यह झमेला।” ॥४॥

धन्य है गरिमा मनुज की,
सम न सबको आँकता है।
ढूँढकर कारण निराले
मूढ़ जग को बाँटता है।

जाति, कुल या लिंग से वह
श्रेष्ठ खुद को मानता है।
खोखला अभिमान लेकर
अन्य को दुतकारता है।

किन्तु फिर भी जाप गुण को
कपट वह रचता रुपहला! ॥५॥

मालिनी को युक्तितरकीब सूझी,
“प्रिय शिष्या उत्तरा है,
यदि निवेदन यह करे तो
मान लेना तय धरा है।”

उत्तरा जा बृहन्नला को
भ्रातभाई के हित साथ लायी।
गौ-हरण, आसन्नसमीप, निकटस्थ, उपस्थित रण की
स्थिति उत्तर ने बतायी,

“मालिनी ने परिचय दिया,
तथ्य जाना है नवेला। ॥६॥

“कह रही तुम पार्थ-सेवक,
विजय के उत्कृष्टउत्तम, श्रेष्ठ साधन।
आज मेरे युद्ध में भी
क्या करोगे अश्व-चालन?”

दी सहमति बृहन्नला ने,
“आपकी आज्ञा धरूँ सिर।”
युद्ध को सन्नद्धतैयार, उद्यत उत्तर
निरतकिसी काम में लगा हुआ श्लाघाआत्मप्रशंसा, शेखी बघारना, डींग हॉंकना में हुआ फिर,

“विजित कर आता अभी हूँ
कौरवों को मैं अकेला।” ॥७॥

सिंह-ध्वज रथ पर लगाकर
प्रस्तुततैयार, उपस्थित हुआ वंश-गौरव,
“ले चलो उस ओर रथ को
जिस दिशा में गए कौरव।”

उत्तरा चहकी विदा दे,
“ब्याह गुड़ियों का रचाना;
बृहन्नले! कौरव रथी के
नरम झीने वस्त्र लाना।”

पार्थ बोले, “भ्रात-जय तो
साथ होगा दुकूलरेशमी वस्त्र, महीन कपड़ा मेला।” ॥८॥