कुंठ सर्ग - भाग ३ - यदि समय अनुकूल होता

[कौरव-आक्रमण के समाचार से अंत:पुर में खलबली मची है। राजकुमार उत्तर व्याकुल तो हैं, परंतु निस्तेज-निश्चेष्ट हैं।]

“यदि समय अनुकूल होता!”

कह उठा उत्तर सहज ही
मंद स्वर में बुदबुदाते।
आप में डूबा, लकीरें
भूमि पर नखनाखून से बनाते।

“है अभी यह बात कल की
मातुलमाता का भाई, मामा गये लोक दूजे,
और जाते ही अचानक
युद्ध के दो ढोल गूँजे।

“काल-दृष्टि न कुपित होती,
तो कदाचितशायद यह न होता। ॥१॥

तातपिता सेना सहित रण में
व्यस्त बाहर हैं नगर से,
आ गये हैं कुटिल कौरव
जानकर यह गुप्तचरभेदिया, मुखबिर से;

“या कि दुर्योधन-सुशर्मा
मंत्रणाविचार-विमर्श, सलाह-मशविरा-षड्यंत्रसाजिश, कपट-योजना रचकर,
आ चढ़े दोनों तरफ से
दो भुजाएँ साथ जुड़कर,

“काटने को बीच कसता
ज्यों सुपारीछोटा कड़ा गोल फल जिसके छोटे छोटे टुकड़े पान के साथ खाये जाते हैं, betel nut को सरौताकैची की तरह का एक प्रकार का उपकरण जो सुपारी काटने के काम आता है।” ॥२॥

धेनु-पालकधेनु: गाय; पालक: पालने वाला, देखभाल करने वाला सन्न सुनकर
कुँवर की निस्तेजजिसमें तेज न हो वाणी।
सोचता था सूचना पा
उबल उत्तर की जवानी,

झट चलेगी ठान रण को,
काल का आह्वानकिसी विशेष व्यक्ति को, या किसी को विशिष्ट कार्य के लिए पुकारना, बुलाना निभाने।
किन्तु यह निश्चेष्टजो चेष्टा (कोशिश, प्रयत्न) न कर रहा हो बैठा
काल को देता उलाहने।

युद्ध-भेरीरण-क्षेत्र में बजाया जानेवाला एक प्रकार का बड़ा ढोल की घड़ी पर
दीनता के राग रोता। ॥३॥

भाँपकर दुर्बल दशा को
विनय से उसने कहा तब,
“नगर, गोधनगायों का समूह, राज्य रक्षा
आप पर ही भार है सब।

“लूटकर गोधन रुकेंगे,
आप जो यदि रह गये दब?
नगर पर धावाधावा करना: आक्रमण करना करेंगे,
बैठिए ना आप चुप अब।

“विश्व को दें वीर-परिचय,
श्रेष्ठ अवसर कौन खोता?” ॥४॥

सीख देना विनत स्वर में
कठिन, सोने पर सुहागा।
सुन दुहाई ग्वाल की यह,
कर्म का कुछ भान जागा।

समझकर संकेत उत्तर
लाज से रक्ताभरक्त की तरह की लाल आभावाला झेंपाझेंपना: लज्जित होना,
“सत्य कहते हो पिता ने
है मुझे दायित्वजिम्मेदारी सौंपा —

“शत्रु-वध कर मैं पठाऊँपठाना: (वापस) भेजना
रथ उसी की लाश ढोता ॥५॥

“क्या करूँ पर युद्ध में गतपिछला, बीता हुआ,
मास भर तक जो चला था,
निपुणदक्ष, कुशल, प्रवीण मेरा सारथिरथवान, रथ चलाने वाला उसी
युद्ध में मारा गया था।

“अब बताओ सारथि बिना
मैं करूँ यह युद्ध कैसे?
हाथ में एक थाम वल्गाघोड़ों की लगाम
मैं चलाऊँ धनुष कैसे?

“अड़चन यही बस नहीं तो
रिपु-लहू से भू भिगोता।” ॥६॥

अंत:पुर की नारियों से
डींग उत्तर मारता है,
“तानता हूँ मैं धनुष जब
नाग सा फुफकारता है,

“कुशल सारथि तुम कहीं से
बस मुझे दो ढूँढ लाकर,
और फिर देखो कि कैसे
मैं अभी इस पहर जाकर

“कौरवों के रक्त से ही
कौरवों के पाप धोता।” ॥७॥

शूर जिस पल विकलबेचैन, व्याकुल होकर
उठ चलें शोणितखून बहाने,
चकित सैरंध्री कि उत्तर
खोजता कैसे बहाने!

है नहीं संयोग पर यह —
द्वार दुर्योधन खड़ा है,
कीचक-चिता के धुँए में
सूँघ हमको ही बढ़ा है।

जाकर अब बृहन्नला को
जल्द दूँ यह युद्ध-न्योता। ॥८॥