लोप सर्ग - भाग १ - वंदना

[पांडव ऋषि धौम्य के साथ ईश-वंदना कर रहे हैं।]

“हे विनायक! आपका हम ध्यान इस विधि से धरें
कि पितृ भी यदि शत्रु बनकर कंठ को खंडित करें,
ग्रह गजानन, वक्रतुंड या एकदंत ही बस बचे,
पर व्यथित ना हों तनिक भी, मान्यता अर्जित करें।
बन सकें हम विघ्न-नाशक शोक-हारक जगत के।
लोक हित को नत समर्पित, हों सहायक प्रगति के।
अल्प साधन, मूष वाहन, परिक्रमा पर विश्व की,
लक्ष्य साधें युक्ति से, परि-बंध तोड़ें नियति के। ॥१॥

“शंभु शंकर करुण सागर दान हम यह माँगते—
रूढ़ि-मर्दन हेतु तांडव-शक्ति हे नटराज दे।
ध्वंशकर अन्याय को हम धर्म का संबल बनें।
अबल का बल सिद्ध हों तू शूल कर में आज दे।
क्षीर मंथन से अमिय की लालसा सब ही करें,
पर गरल यदि हो प्रकट निर्-द्वन्द्व वह भी पी सकें।
कंठ में ही रोक लें विष, उर कभी न विषाक्त हो,
जूट से निर्मल निकलकर जीवनी गंगा बहें। ॥२॥

“शारदे माँ हम सृजन की साधना में रत रहें,
कल्पना कोंपल खिलें और पल्लवित-पोषित रहें।
प्रखर चेतन बुद्धि बल का तुम हमें वरदान दो,
ज्ञान और विज्ञान को विकसित करें, विस्तार दें।
प्रार्थना करते कला साधन नहीं हो, साध्य हो,
सृजन की जिस भी विधा में रुचि जगे, आराध्य हो।
साधना ही सिद्धि हो, धन-ख्याति का माध्यम नहीं।
प्रेरणा सरिता से सिंचन अनवरत निर्बाध हो। ॥३॥

“हे दिवाकर! तेज तुझ सम जगत ज्योतिर्मय करे,
कर्म हों पावन हमारे, अग्नि में उतरें खरे।
पवन अपनी शक्ति देना, प्राण बन जग में बहें।
धर्म पालन की सुरभि उड़ व्योम के पहुँचे परे।
नमन धरती तू हमें है विविध विधि से पालती।
नमन वर्षा, नमन सरिता, सींचती, तू तारती।
पोषती है प्रकृति जैसे, हम भी संरक्षण करें,
उस सरीखे हम बनें यह ही यथोचित आरती। ॥४॥

“मातृ-भूमि प्रणाम तुझको, और तेरे पुराण को।
स्वेद का हर कण समर्पित देश के निर्माण को।
जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़ राम ने भी यह कहा,
सर्वदा तुझपर निछावर हम करें मन-प्राण को।
सब सुखी हों, सब निरोगी, कष्ट से हर त्राण हो।
दिग्दिगंत विनष्ट दुर्मति, कलुषता निष्प्राण हो।
साहचर्य समाज समरस शांति का साम्राज्य हो।
व्याप्त हो चहुँ ओर मंगल, सर्व जन कल्याण हो। ॥५॥