लेखनी कहती है मुझसे कि लिखो तुम

लेखनी कहती है मुझसे कि लिखो तुम!

हर तरफ जयकार के स्वर ही बचे हैं,
राम हैं हम, राम हैं हम, चीखते हैं —
मार कर रावण निरापद जग किया है,
धर्म पर अधिकार यों साबित किया हैं।
शोर यह बहरे न कर दे कान मेरे,
रामलीला के मुखौटे नोच लो तुम।
लेखनी कहती है मुझसे कि लिखो तुम!

आग से जन की परीक्षा ना रुकेगी,
जानकी निर्दोष होकर भी जलेगी।
बच गयी तो जाए वन, भू में समाये,
राम पर लेकिन न कोई आँच आये!
रे परीक्षा राम की भी हो तनिक तो,
घेर लो, अंगार की रेखा बनो तुम।
लेखनी कहती है मुझसे कि लिखो तुम!

“ये न समझो बस धनुष पर बाण धरकर,
वाक्यपटुता के अनोखे स्वांग रचकर,
नाट्य में अभिनय सदा करते रहोगे,
बंदरों के आसरे बढ़ते रहोगे।
तोड़ता उम्मीद जनता की जो मूरख,
ना बची है लाज उसकी,” जा कहो तुम।
लेखनी कहती है मुझसे कि लिखो तुम!

१ अक्टूबर २०१७
(विजयादशमी के अगले दिन)
बंगलौर