जो छिपाना चाहता था

बाढ़ को बाँधा मगर कुछ-एक बूँदें आ गयीं,
जो छिपाना चाहता था विश्व को दिखला गयीं।

स्वप्न आखों में सजाकर जगमगाता था सदा,
पवन का उत्पात बनकर लहलहाता था सदा,
हो न जैसे छाँव बादल की तनिक सी भी कहीं,
व्योमआकाश के उस सूर्य जैसा तमतमाता था सदा।
झील मन की सोचता था अब सदा को जम गयी,
गर्म हिल्लोलेंलहरें मगर हिम-सतह को पिघला गयीं,
जो छिपाना चाहता था विश्व को दिखला गयीं॥

सख्त पत्थर मेरु से टूटा नदी में बह चला,
नद-तले में वह लुढ़कता जब किसी से भी मिला,
वे नुकीली धार से उसके किनारे निर्दयी,
थे उकेरे घाव या फिर अंग अपना ही छिला।
अंत तक चोटें उसे पर गोल-मोहक ढालकर,
प्राण हैं पाषाण में भी पाठ यह सिखला गयीं,
जो छिपाना चाहता था विश्व को दिखला गयीं॥

२९ जून २०१७
बंगलौर