जल-प्लावन फिर से होगा!

आदि कथा में कभी पढ़ा था --
देव पुरुष उच्छृंखल होकर,
प्रकृति को दासी समझे थे,
निर्बाध आत्मतुष्टि में खोकर।

कब तक ऐसी संतति सहती,
पृथ्वी डूब गयी थी जल में।
प्रलय कोप का फैला विप्लव
सृष्टि नष्ट हुयी कुछ पल में।

देवलोक के चिह्न मिटे थे,
और मनुज का युग आया था।
श्रद्धा और मनन ने फिर से
जग को जीवन सिखलाया था।

पर आज सभ्यता को देखो,
वैभव, बल का युग दिखता है।
उन्नति की स्वर्णिम चोटी पर
देवलोक सा फिर दिखता है।

आत्मकेंद्रित मनु की सत्ता ने
उच्छृंखल विष फिर से बोया।
देव तुल्य, जग का स्वामी बन,
मानव आत्मतुष्टि में खोया।

मनुज लोक कब लुप्त हुआ,
मानव को यह भान नहीं है।
प्रकृति फिर दासी दुखियारी,
विप्लव मन में ठान रही है।

क्रोधित संकेतों से कहती,
मतिहीन सदा केवल भोगा।
तेरे पापों के प्रायश्चित्त को
जल-प्लावन फिर से होगा!

प्रेरणा-स्रोत:

१२ दिसंबर २०१६
बंगलौर