तनये! तुम मेरे जीवन की थाती हो!

तनये! तुम मेरे जीवन की थाती हो!
गुंजित होता है मन-आँगन जब तुम तुतले स्वर में गाती हो!

जीवन के यत्नों में निमग्न
अपनी ही सुध में जाया था।
दो-चार सुखों के संचय में
अपना सर्वस्व लगाया था।
तिनके-तिनके जोड़, सजा,
मैनें भी नीड़ बनाया था।
स्नेह सुधा से सिंचित हो
मधुमय संसार बसाया था।
पर संचित कुछ अनुभव ऐसे,
मन में विराग भी बसता था।
शिशु-मोद लुभाता था, लेकिन
संतति पालन से डरता था।
अब हँसता हूँ अपनी मति पर
जब "बा" कह मुझे बुलाती हो।
तनये! तुम मेरे जीवन की थाती हो! ॥१॥

तुम आयी जब गोदी में, मैंने
गालों को पहली बार छुआ,
तुम देख रही थी टुकुर-टुकुर
चहुँ ओर निरा संसार नया।
मैं मोहित तेरी बड़ी-बड़ी
आँखों के कौतुक विचरण पे।
रक्तिम रूखी नवजात त्वचा,
झीनी पलकों के उद्यम पे।
पतली, नन्ही अंगुलियों के
मुट्ठी में बंधने-खुलने पे।
आकारहीन स्पंदन लय से
नव जीवन प्रस्फुट होने पे।
तुझ संग मैंने फिर जन्म लिया,
नित पाठ नये सिखलाती हो।
तनये! तुम मेरे जीवन की थाती हो! ॥२॥

स्मृति में हर क्षण अंकित है
जैसे-जैसे तुम बड़ी हुई।
घुटनों पर सारा घर घूमा,
अंगुली थाम कर खड़ी हुई।
डग-मग पग से जग नापा,
गिर-उठ निज क्षमता परखी।
अनजाने कितने खेल रचे,
तेरा भोला अधिकार सखी।
अनगिन लार भरे चुम्बन से
मेरे गालों का मान किया।
अपने नन्हें हाथों से मेरे
केशों का श्रृंगार किया।
उड़ता हूँ नभ में जब मेरे
कंधे पर चढ़ इठलाती हो।
तनये! तुम मेरे जीवन की थाती हो! ॥३॥

कुछ नये अलबेले शब्दों की
नई भाषा हमको सिखलायी।
कुछ तुतला कर हम भी बोले,
अपनी भी तुमको समझायी।
कुछ गीत तुम्हारे गाये मैंने,
मेरे गीतों को तुमने गाया।
तेरे बचपन की बाँह पकड़
मेरा बचपन फिर से आया।
गोदी पर बैठी जिद करती,
मुस्काया, रोया, लाड़ किया।
अव्यक्त रही जो जीवन भर,
उस पीड़ा का उपचार किया।
धड़कन नयी धुन गढ़ती है जब
सीने पर तुम सो जाती हो।
तनये! तुम मेरे जीवन की थाती हो! ॥४॥

२२ अगस्त २०१६
बंगलौर

PS:

इस कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ तकरीबन ३ साल पहले लिखीं थीं जब मेरी बड़ी बेटी ने बस बोलना शुरू ही किया था। लेकिन दैव योग से कविता अधूरी ही रही। भगवानम् यत करोति, शोभनम् ऐव करोति। अब मेरी छोटी बेटी ने तुतलाना शुरू किया है, तो बाकी के छन्द भी पूरे हुए।

इस कविता की पहली पंक्ति के पीछे भी कथा है। तब बड़ी बेटी एक वर्ष की भी नहीं हुई थी, मैं और मेरी मौसेरी बहन इस बात की चर्चा कर रहे थे कि वह बड़ी होकर मुझे क्या कह कर पुकारेगी, और मैं उसे क्या कह कर पुकारूँगा। हमने यह निर्धारित किया कि वह मुझे "तात" कहेगी, और मैं उसे "तनया", परन्तु बेटी की कुछ और ही योजना थी। जब उसने बोलना शुरू किया तो मुझे "बा" कह कर बुलाना शुरू कर दिया। अब यह भी न्यायोचित था, अगर मैं यह तय करता हूँ कि जग उसे क्या कह कर बुलाएगा, तो उसे कम से कम यह तय करने का अधिकार तो है ही कि वह मुझे क्या कह कर बुलाएगी। तब से मेरे लिए "बा" सबसे मधुर शब्द हो गया।