क्यों करूँ यह कविता पूरी

स्मृतियों के अनगिन पन्ने,
भाव समेटे नन्हे-नन्हे,
आतुर हैं अपनी कहने को,
संवेदित धारा बहने को।

कुछ है उनमे हँसी-ठिठोली,
कुछ में मन की गाँठें खोली।
कई प्रसंग हैं रंग-बिरंगे,
और जीवन के शाश्वत पंगे।

क्षण-क्षण कर यादों को जोड़ा,
आकुल है मेरा मन थोड़ा,
क्या सचमुच ही सबकुछ कह दूँ?
सबको अपने मन की तह दूँ?

भाव उकेरे कागज में जो,
मन में कुछ न शेष रहे जो,
खाली हो कभी भर पाउँगा?
मैं क्या फिर मैं रह पाउँगा?

हाँ! अनुभव के युग हैं बीते,
पर मन के कई कोने रीते,
जीवन आधा, कथा अधूरी!
क्यों करूँ यह कविता पूरी?

६ मई २०१६
बंगलौर