मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय, तुम आते तब क्या होता?

हरिवंशराय बच्चन की एक बड़ी ही सुन्दर कविता है प्रतीक्षा, जिसकी शीर्षक पंक्ति है:

मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय, तुम आते तब क्या होता?

आज एक मित्र से इस कविता की चर्चा में मैंने ये पैरोडी लिखी, आशा है कि इस पर किसी के आक्रोश की वर्षा नहीं होगी :-)

उपवन में पेड़ों के झुरमुट परे मिलन का साक्षी कोना,
मुझको ढाँढस देते-देते उसका बिलख-बिलख कर रोना,
कहता है कि प्रिय मिलते तो मेरे अधरों को सुख मिलता
बाहों में भर, अंक लगाकर, मधु रस से मन को छकता!

पर मुआ यह मद्य-निषेध मेरे सुख का कैसा बैरी है,
ये तो भला हुआ कि संग में नमकीन की एक गठरी है,
कोला चढ़ गयी है इतनी, अंगूरी होती तब क्या होता?
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय, तुम आते तब क्या होता?