कुपित हुई भारती है

ध्येयमंजिल, goal थे नियतनिर्धारित, निश्चित, decided, determined सदा, और पंथपथ, मार्ग, रास्ता, राह, path भी स्पष्ट था,
प्रयासकोशिश, चेष्टा, effort और उचित समय भी सदा ही दृष्टदिखाई पड़ने वाला, in sight था।
अब न जाने क्या हुआ कि ध्येय सारे खो गए,
मस्तिष्क के तंतुरेशा, तार, धागा, fiber, nerve जैसे शिथिलढीला, थका, lax, tired हो कर सो गए।
निष्कर्मजो कोई कर्म न करता हो, या करने पर भी उसमें लिप्त न होता हो ये दशा मुझे दंशडंक, sting कई मारती है।
क्यों मेरे ध्येय-कर्म से कुपितकुपित, स्र्ष्ट, angry हुई भारतीसरस्वती, माँ शारदे, Goddess Saraswati है?

विचार हों, भाव हों, या मौन का आख्यानकथन, वर्णन, वृत्तान्त, narration हो,
कथ्यकहने लायक हो, अकथ्यअकथनीय, न कहने योग्य, unspeakable, inexpressible हो, या गूढ़ दिव्य ज्ञान हो,
शब्द थे सुलभउपलब्ध, सुगम, available, accessible सदा और लेखनी प्रवाह थी।
अब न भाव-शब्द हैं, और न बची है चाह ही,
जल रही थी जो सदा बुझ गयी वो आरती है।
क्यों मेरे शब्द शिल्पशब्द कौशल, शब्दों की कला, wordcraft से कुपित हुई भारती है?

१ नवंबर २०१५
बंगलौर