बचपन से पुनः मिलन

बचपन के उपहारों की
कई स्मृतियाँ अलबेली हैं।
दशकों पीछे छूट गये
पर लगती नयी-नवेली हैं।
अनगिन कितने अर्थ गुने
पर अब भी वही पहेली हैं।
मन-आँगन की ये बेलें
छत की मुरेड़ तक छैली हैं।
इनके सम्मुख आता हूँ
तो मन हर्षित हो खिलता है।
बचपन से फिर मिलने पर
जीवन का मर्म निखरता है॥१॥

ऊधम के स्वर्णिम मानक
हम सारे नटखट बालक थे।
अकल्पनीय अभियानों के
चर्चित उद्दंड प्रचारक थे।
जीवन चक्र अनिवार्य चला,
अब हुए स्वयं अभिभावक हैं।
जग प्रयास कर हार गया,
पर बच्चे सफल सुधारक हैं।
उनकी कौतुक करनी में
खुद का भी बचपन दिखता है।
बचपन से फिर मिलने पर
जीवन का मर्म निखरता है॥२॥

मित्र बने जो बचपन में
उनमें कुछ बात अनोखी थी।
कभी लड़े, कभी मेल हुआ,
वो अंतरंगता चोखी थी।
विरले सत्कर्म सराहे,
दुष्कृत्यों पर वार किया।
भला-बुरा जैसा भी था,
संपूर्ण सहज स्वीकार किया।
सुख-दुख में वे साथ रहे,
मन में आभार उभरता है।
बचपन से फिर मिलने पर
जीवन का मर्म निखरता है॥३॥

जाने क्यों नियति ने छल,
अन्याय ये मेरे साथ किया।
हालातों का चक्रव्यूह रच,
असमय बचपन छीन लिया।
ऐसी मेरी प्रकृति कहाँ
कि चुप रह कर अन्याय सहूँ।
प्रतिकार भरा ये प्रण था
कि शिशु मन में पोषित रखूँ।
अब निज संतति गोदी ले,
हठ तजने का क्षण दिखता है।
बचपन से फिर मिलने पर
जीवन का मर्म निखरता है॥४॥

४ दिसंबर २०१४
बंगलौर