मर्त्य जगत

रोम रोम में बसी उमंग है उड़ा व्योम ले जाती,
चंचल भावों की नव धारा नित अपने संग बहाती,
जीवन के आकर्षण अनगिन मन को बांधे रहते,
कैसे विषण्ण विज्ञ जन इसको मर्त्य जगत हैं कहते?

भौंरे का सत्कार, सुमन सौरभ से उसे सजाता।
मधुर अनुदान मधुप का, मकरंद से मधु बनाता।
पर भूल प्रेम सुधा, मृत्यु को परम सत्य हैं गुनते,
कैसे विषण्ण विज्ञ जन इसको मर्त्य जगत हैं कहते?

सुमन सूख कर गिरता, उसमें बीज नहीं संचित है?
शिशु की किलकारी में क्या जीवन नहीं निहित है?
"नश्वर निखिल संसार प्यारे" निशि-दिन फिर भी जपते,
कैसे विषण्ण विज्ञ जन इसको मर्त्य जगत हैं कहते?

आयु भले घटती हो पर क्या जिजीविषा घटती है?
मनुज भले मरता हो पर क्या मानवता मिटती है?
समय चक्र की परिधि में क्यों खुद हैं सिमटे रहते,
कैसे विषण्ण विज्ञ जन इसको मर्त्य जगत हैं कहते?

२७ अप्रैल २०१४
बंगलौर