पहला कुण्डलिया

रहिमन कह मन की व्यथा, मन ही राखो गोय।
लेकिन हम न सुनैं तनिक, समझावे चह कोय॥
समझावे चह कोय, करें हम अपने मन की।
मस्ती हो या टीस, सदा कविता में झलकी॥
जग की चिंता छोड़, अरे कुण्डलिया कह मन।
गा दुख के भी गीत, कहें हों कुछ भी रहिमन॥

२६ अप्रैल २०१४
बंगलौर

[यह कुण्डलिया रहीम दास जी के इस दोहे में दी गयी सीख का प्रतिवाद है:
रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलइहैं लोग सब बांट न लइहैं कोय ॥]

[कुण्डलिया छंद]